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Saturday, 22 June 2013

चाहतें

कभी यूँ सिमट कर खुद में ही, आगे बढ़ने की चाहत होती है
तो कभी युहीं टूट कर भिखर जाने को दिल चाहता है

कभी मुस्कराहट लेकर होठों पर, खुश होने की चाहत होती है
तो कभी अकेले में आंसू बहाने को दिल चाहता है

चाहतो का क्या जो कभी ख़तम ही ना  हुई
इसमें तो ख़ुशी और गम दोनों को पनाह मिली है

कभी समेट कर इन चाहतो को, छोड़ देने की चाहत होती है
तो कभी खोकर चाहतों में जी जाने को दिल चाहता है

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