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Friday, 16 August 2013

कहाँ भूल पाई हूँ मैं

कहाँ भूली हूँ मैं उन बंद सी गलिओं को आज भी
दिल में अब भी वो गुजरी हुई तस्वीर रखी है
न जाने कितना रास्ता है यहाँ से उन यादों का
पर दिल में वो अब भी उतनी ही पास रखी है
वो गुज़रा ज़माना मिटटी का
फीके से पड़े हैं खेल सभी
आज उड़ रही हूँ उस उड़ते जहाज़ में, जिसे देखती थी ज़मीन से कभी
पर देखों आंखें अब भी उस ज़मीन को तलाशती है
मैंने सभ कुछ पा लिया है वापिस सकून को तलाशती है
वो पैरो से उड़ाई धुल को, बारिश के पानी में चलाई कश्तिया जो
अब वो बारिश का पानी नहीं मिलता कश्ती चलाने को
आस पास देखूं मिटटी नहीं मिलती खिलोने बनाने को
कोई पास नहीं है अब, छीन कर कुछ खाने को
इतनी आजादी दी है मुजको, न जाने कोंसी अनदेखी बेइईओं में बाँध कर
कैसे जाउं वापिस, न जाने कोनसी दिवार को फांध कर
कोई ऐसा रास्ता दिखा दो जो वापिस जा पाऊँ मैं
जा कुछ ऐसा जादू कर दो जो सब कुछ भूल जाऊ मैं
ऐसे यादों के साथ रहना आसान नहीं है
दिल उसको ढूंडता है जो अब पास नहीं है
कहाँ भूली हूँ मैं उन बंद सी गलिओं को आज भी
दिल में अब भी वो गुजरी हुई तस्वीर रखी है